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तिब्बतियों के राष्ट्र विद्रोह की 64वीं वर्षगांठ स्मरण दिवस पर निर्वासित तिब्बती संसद की वक्तव्य

TPiE
2 years ago

 

तिब्बतियों के राष्ट्र विद्रोह की 64वीं वर्षगांठ स्मरण दिवस पर निर्वासित तिब्बती संसद की वक्तव्य

 

 

आज हम 1959 में उस दिन को चिन्हित करते हैं जब साम्यवादी चीनी सरकार ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा को एक क्रूर सशस्त्र दमन किया गया। यह चीन की साज़िशों की एक विस्तृत श्रृंखला का एक हिस्सा था जिसमें चीन हमेशा से परम पावन दलाई लामा जी के जीवन पर भी बुरे नियत डालता आ रहा है, ऐसी स्थिति में तिब्बतियों के लिये सहन करना असम्भव था। इस लिये यह अवश्यंभावी था कि देश के तीनों प्रान्तों से हज़ारों की संख्या में, भिक्षु व आम लोगों ने ल्हासा में विरोध के एक सहज उभार में अपने देश की भलाई पर एक सामान्य विचार की विलक्षणता के साथ उठ खड़े हुए। और आज, हम उस महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक अवसर की 64वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। आज हमारा शहीद दिवस भी है, हम सभी अपने उन देशभक्तों की वीरता को याद करते हैं। मैं निर्वासित तिब्बत संसद की ओर से तिब्बत की धार्मिक, राजनीतिक और जातीय पहचान के लिये अपना सब कुछ बलिदान करने वाले उन देशभक्त नायक-नायिकों के साहस एवं कार्यों के प्रति श्रद्धाञ्जलि देना चाहता हूँ। और साथ ही साथ वर्तमान में तिब्बत में चीन सरकार के दमनकारी शासन के तहत अनकही पीड़ा झेल रहे लोगों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करना चाहता हूँ।

तिब्बत और चीन में प्राचीन काल में एशिया महाद्वीप में अपने प्रभुत्व और प्रभाव के लिये प्रसिद्ध देश हैं। वे पड़ोसी देश थे जिनके विकास के अपने अलग इतिहास थे। चीन और तिब्बत के बीच सामान्य सीमाओं के पार सशस्त्र संघर्ष की लगातार घटनाएं हुई थीं। और उनके बीच एक सीमा शान्ति समझौते में, दोनों देशों ने एक शान्ति संधि की, सीमा का बटवरा शान्तिपूर्ण समाधान द्वारा समझौता के उद्धरण में- “एक महान युग की स्थापना की जब तिब्बती तिब्बत में खुश होंगे, चीनी चीन में खुश होंगे”, एक ऐसी स्थिति जो कभी नहीं बदलेगी। तिब्बती और चीनी दोनों भाषाओं में इस संधि को उकेर कर बनाया गया एक शिलालेख है, अभी भी तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चुगलगखांग मन्दिर के सामने खड़ा देखा जा सकता है, जो उस घटना के एक स्पष्ट प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। हालाँकि, साम्यवादी चीनी सरकार के द्वारा हिमवत तिब्बत के मानव व प्राकृतिक संसाधनों को जब्त करने की दुर्भावना पालकर गबन करने की प्रयास में सशस्त्र आक्रमण किया था। लाल चीन सरकार द्वारा वर्ष 1949 में शान्तिपूर्ण मुक्ति के नाम पर तिब्बत पर बालात् घुसपैठ किया था, जिसमें समस्त तिब्बत के तीनों प्रान्तों पर क्रूरतापूर्ण सशस्त्रबलों को प्रवेश करते हुये आक्रमण शुरू किया, जिसमें लाखों तिब्बतियों की जाने चली गई । इसके अलावा, तथ्य यह है कि तिब्बत के लोगों ने 10 मार्च, 1959 को तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीन के वर्चस्व को तहत बढ़ते उत्पीड़न के परिणामस्वरूप ल्हासा में विद्रोह करने के लिये मजबूर हुये, यह तिब्बती राष्ट्र के इतिहास में एक अमिट छाप बनी हुई है।

चीन सरकार द्वारा वर्ष 1951 में, चीन की सरकार ने तिब्बत सरकार के एक प्रतिनिधिमण्डल को एक तथाकथित 17-सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये बाध्य किया। हालाँकि, समय से साथ, यह उस समझौते के प्रत्येक प्रावधान को रौंदता रहा था। उन कार्रवाइयों ने अन्ततः वर्ष 1959 में परम पावन दलाई लामा जी, तिब्बत के धार्मिक व आध्यात्मिक नेता को अपने सरकारी मन्त्रियों की परिषद के साथ भारत में पालयन होने को मजबूर होना पड़ा, उन 80,000 तिब्बतियों ने भी पालयन किया। तब से लेकर तिब्बती निर्वासन का इतिहास अब 64 वर्ष पुराना हो गया है।

तिब्बत के पूरे क्षेत्र पर अपने कब्ज़े को पूरा करने के बाद, साम्यवादी चीनी सरकार ने नीतियों की एक विनाशकारी कुटिल श्रृंखला शुरू की, जिसका उद्देश्य तिब्बत की जातीयता और संस्कृति सहित उसकी पहचान को मिटाना था। अकेले इस तरह के एक नीति अभियान के तहत, अर्थात् सांस्कृतिक क्रान्ति, ज़िलों और सम्पदाओं, मठों और मन्दरों, लामाओं के घरेलू निगमों की सम्पूर्णता, और इसके बाद के इतिहास में एक हज़ार साल से अधिक पुराने इतिहास थे और जो तिब्बती सांस्कृतिक विरासत की विशिष्ट विशेषताएं को विनाश किया गया। इन विनाशों के खण्डहरों से, पवित्र और बहुमूल्य वस्तुएँ जो बुद्ध की काय,वाक् और चित्त के प्रतीक थे, अन्य मूल्यवान धार्मिक वस्तुएँ जो सोने-चाँदी, ताम्बे जैसी सामग्रियों से बनाई गई थीं, पूजा की वस्तुएं और साथ-साथ घरों से सम्बन्धित आभूषण आदि अन्य विभिन्न मूल्यवान वस्तुओं को चीन में ले जाया गया। यही नहीं धार्मिक वर्गों के मठाधीश, अवतरी लामा, गेशे, मठों में पूजापाठ के समय प्रमुख भिक्षुओं, अनुशासन लागू करने वाले भिक्षु कार्यकर्ताओं और सरकार और ज़िले के आधिकारियों को विभिन्न प्रकार की लिखित घोर आलोचनाएं वाले कागज की टोपियों पहनाकर बज़ार में परेड करवाते हुए सार्वजनिक स्थान पर ले जा कर अपमानित करते हैं।  इस प्रकार छात्रों के द्वारा शिक्षक का अपमान करवाना, उच्च स्तर के छात्र को न केवल अपने माता-पिता से हिंसा और आलोचनाओं के आदेश के अनुसार ताना मारा जाना, इतना ही नहीं, महिलाओं का यौन उत्पीड़न के शिकार होना पड़ता है, आदि इस प्रकार के अमानवीय अत्याचार मानवता के सोच से परे यातनाएं दिये गये। वे तो तिब्बती मानवजाति का एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक प्रक्रिया बन गया है।

आज भी, चीन तिब्बत में निरन्तर ‘समाजवादी वैचारिक शिक्षा’ और ‘देशभक्ति की वैचारिक शिक्षा’ जैसे अभियानों के नाम पर तिब्बती राषट्रीय पहचान को नष्ट करने की योजना के साथ अत्याचार की नीतियाँ चला रहा है। तिब्बत के लोगों के लिये, इस तरह के अत्याचार का अन्तहीन क्रम एक संघर्ष बना हुआ है, उनके पास दिन-रात सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, चाहे वे कितने भी असहनीय क्यों न हो। फिर भी, तिब्बत में  रह रहे तिब्बतियों द्वारा अपने राष्ट्र के प्रति एकजुटता की भावना के साथ अदम्य दृढ़ संकल्प जो कि पहाड़ के भाँति बिना डगमगाए पूरे साहस साथ अत्याचारों का विरोध करने लिये खड़े हुए हैं। फिर भी, चीन सरकार अतीत, वर्तमान और भविष्य के समय की बाधाओं के बावजूद तिब्बत के लोगों पर राजनीतिक दबाब डालने के माध्यम से अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने, तिब्बती लोगों को कई तरह के सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक भेदभावपूर्ण व्यवहारों के अधीन करने के लिये उतनी ही अडिग बनी हुई है। इसके कारण तिब्बत में मानवाधिकारों की स्थिति को बत से बत्तर बनी हुई है। इस तथ्य की पुष्टि आज तक कई अन्तर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में दिखाई देती रही है।

इसी तरह, चीन की सरकार तिब्बती के प्राकृतिक वातावरण का अत्यधिक दोहन करने के लिये दोषी मानती रही हैं। विशेष रूप से, तिब्बत को चीन का हिस्सा बनाने की अपने प्रयासों में, यह तिब्बत के राष्ट्रीय  इतिहास को विकृत कर रहा है और संग्रहालय प्रदर्शन, पत्रिकाओं के प्रकाशन, समाचार पत्रों, दुरदर्शन प्रसारण और वेबसाइटों आदि के माध्यमों का उपयोग कर सभी दुनिया भर के देशों में बिना तथ्य व प्रमाण के निराधार प्रचार-प्रसार कर रही है, जो अब तिब्बती लोगों की अद्वितीय सांस्कृति विरासत, हमारी परम्पराओं और रीति-रिवाजडों, भाषा, जातीय पहचान आदि को मिटाने की स्पष्ट रूप से क्रूर नीति है। तिब्बत में चीन की वर्तमान धार्मिक नीति कहती है कि “सभी स्तरो पर अधिकारियों को चीन की उत्कृष्ट संस्कृति और परम्परा की शक्ति के तहत इस नीति की सफलता सुनिश्चित करने के लिये समाजवादी की मूल मूल्यों की विचारधारा के नेतृत्व में तिब्बती बौद्ध धर्म के चीनीकरण की गति को बनाये रखना चाहिये।” इस प्रकार चीन तिब्बती में बौद्ध धर्म की तिब्बती परम्परा को चीनीकरण की नीति को सक्रिय रूप से लागू कर रहा है। यह तो तिब्बती बौद्ध धर्म का दार्शनिक सिद्धान्तों, तीन शिक्षा के अभ्यास, सूत्र व तंत्र सिद्धान्त के तरीक़ो का विरोधाभासी है अतः इस प्रकार की नीति को तत्काल रोक लगा देनी चाहिये। यही नहीं तिब्बती मूल पूर्वजों द्वारा दिखलाये तिब्बत बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा रखने वाले जनताओं को धार्मिक स्वतन्त्रता देनी चाहिये साथ-साथ बौद्ध धर्म में दिखाये गये करुणा, अहिंसा मूल सिद्धान्तों लाभ लेते हुये चीन की दिशा अगर बौद्ध धर्म की ओर निर्देशित करती है तो सामाजिक सद्भाव, स्थिरता, शान्तिमय, सौहार्दपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण रूप से रह सकते हैं। यही नहीं पूरे विश्व में सामंजस्यपूर्ण रूप से रहने की प्रभाव पड़ेगा, इसमें कोई शक नहीं। अतः चीन के नेताओं को इस बात में कोई ग़लती न करे कि वे देश की नियति को किस दिशा में ले जा रहे हैं।

इस तरह, यह इंगित करता है कि चीन की सरकार अपने टुल्कु (अवतार) आंकड़ों के धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण पुनर्जन्म की खोज और मान्यता के लिये प्रक्रिया की अनूठी तिब्बती बौद्ध परम्परा में हस्तक्षेप करने और अपमानजनक दुरुपयोग करने में लगी है। उसने नियमों को पारित करने धार्मिक नेताओं के पुनर्जन्म की खोज और मान्यता की प्रथागत तिब्बती बौद्ध प्रथा को कुचल दिया है जो वास्तव में इसके पिछले आश्वासनों के सीधे विरोधाभासी हैं।  विशेष रूप से, चीन पहले से ही वर्तमान दलाई लामा के पुनर्जन्म के लिये अपने स्वयं के उम्मीदवार की स्थापना की तैयारी कर रहा है। अपने आधिकारिक मीडिया के माध्यम से, चीन वर्तमान दलाई लामा के पुनर्जन्म की अपनी पसन्द को स्थापित करने के अपने दावे के अधिकार की अनिवार्यता को दुनिया के सामने घोषित कर रहा है। चीन की सरकार के लिये यह कुछ और नहीं बल्कि राजनीतिक शक्ति का दावा करने का मामला है, क्योंकि वह अपने दावे को बनाये रखने के लिये कोई भी तथ्यात्मक आधार न रखते हुये एक तरह के पागलपन में अधिकार के इस दावे को दोहराती रहती है। वास्तविकता यह है कि पारम्परिक तिब्बती प्रथा में टुल्कुओं के पुनर्जन्म की खोज और मान्यता के लिये निर्णय सम्बन्धित धार्मिक नेता के पास ही होता है। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा इसके साथ ज़बरदस्ती हस्तक्षेप करने का कोई भी दावा पूरी तरह निराधार है क्योंकि इस तरह के किसी भी हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। विशेष रूप से, परम पावन दलाई लामा जी के पुनर्जन्म के मामले में, लगातार हर अवसरों पर उनकी इच्छाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुये वक्तव्य दिये गये हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि केवल यही आधार होगा जिस पर तिब्बत और निर्वासन में रहने वाले तिब्बती और साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में सभी लोग उनके पुनर्जन्म को मान्यता देने के अपने अधिकार का प्रयोग करेंगे।

पिछले वर्ष, चीन सरकार ने तथाकथित 14वीं पंच वर्षीय योजना के अन्तर्गत मानक भाषा निर्माण हेतु परियोजना तैयार की, जो कि प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय के छात्रों का सामान्य भाषा स्तर के मानक निर्धारण हेतु परीक्षा पाठ्यक्रम बनाया गया। यह 2009 में तथाकथित चीनी शिक्षा मन्त्रालय और उसके भाषा अनुप्रयोग और प्रशासन विभाग द्वारा शुरू की गई एक नीति योजना का एक हिस्सा था, जिसमें प्राथमिक और कनिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में भी चीनी भाषा को पूरे शिक्षा कार्यक्रमों में बदलने के लिये कहा गया था। इस योजना में परिकल्पना की गई है कि वर्ष 2035 तक, चीन जनवादी गणराज्य में अन्य सभी राष्ट्रीयताओं की भाषाएं समाप्त हो जायेगी और सामान्य भाषा – जो कि चीनी भाषा है – उनका स्थान ले लेगी। चीनी सरकार की यह कार्रवाई क्षेत्रीय राष्ट्रीय स्वायत्तता पर चीन के अपने क़ानून के तहत दिये गये अल्पसंख्यकों के अधिकारों का प्रत्यक्ष निषेध करता है। यह नीति तिब्बत में पहले से ही इस हद तक सख्ती से लागू की जा रही है कि माता-पिता के पास अपने बच्चों की चीनी भाषा सीखने पर ज़ोर देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।

वर्तमान में, तिब्बत में चीनी सरकार के नियन्त्रण में, तथाकथित बड़ी संख्या में बोर्डिंग स्कूल का निर्माण किये जा रहे हैं। अनिच्छुक अभिभावक व बच्चों को डरा धमका कर दबाव दिया जा रहा है, जिससे वे विवश होकर बोर्डिंग स्कूलों में भेज रहे हैं। इन स्कूलों में छात्रों की संख्या कितनी है? चार विशेष शोधकर्ताओं (चार संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदकों) द्वारा संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् की रिपोर्ट के अनुसार लगभग एक लाख की संख्या दिखाई गई है। जिनमें लगभग 4 और 5 साल के बच्चे भी शामिल हैं। इन छात्रों को एक ऐसे माहौल में शिक्षित किया जा रहा है जिसमें वे अपनी जातीय और सांस्कृतिक पहचान को जानने व समझने से कट रहे हैं। इसका उद्देश्य यह है कि आने वाले पीढ़ियाँ साम्यवादी चीनी सरकार से प्यार करेंगे और उसके प्रति अपनी वफ़ादारी निभाएंगे। परन्तु इन स्कूलों की परिस्थितियाँ बहुत ही दयनीय है। छात्रों को अपने माता-पिता और समाज से अलग होने के कारण अत्यधिक पीड़ा व अकेलेपन की भावना आदि कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ते हुये बच्चों के मनोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा रहा है। जैसे तिब्बती बच्चों को पिटाई, यौन उत्पीड़न, भेदभाव और अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ रहा है, और उनके बारे में लगातार कई रिपोर्टें आ रही हैं। चीन सरकार ने तिब्बती लोगों की जातीय पहचान और संस्कृति को मिटाने का साधन के रूप में तथाकथित बोर्डिंग स्कूलों की स्थापना की नीति को लागू की है। चीन सरकार द्वारा किये गये इन प्रयासों का उजागार करती हूँ। इसलिये, मैं अवसर पर विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के देशों के नेताओं से अपील करता हूँ कि वे चीन की सरकार पर दबाब बनाने और इस प्रकार के दुर्भावनापूर्ण बोर्डिंग स्कूल परियोजना को रोकने हेतु आह्वान करेंगे।

इस प्रकार आज, चीन ने तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में अनिवार्य रूप से उनके डीएनए नमूने एकत्र करने की नीति को सक्रिया रूप से लागू किया जा रहा है। पर कुछ शोधकर्ताओं के मुताबिक, चीन इस कार्यक्रम को लगभग वर्ष 2013 से गुपचुप तरीक़े से इसे अंजाम दिया जा रहा था। और आज, अमेरिका में स्थित अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (ह्यूमन राइट्स वॉच) की रिपोर्ट की खोज के अनुसार, पाँच साल की उम्र के तिब्बती बच्चों से डीएनए नमूने लिये जा रहे हैं। संक्षेप में कहें तो, तिब्बत पर कब्ज़े और उस कब्ज़े के बाद से, और आज तक, चीन ने उपनिवेशवाद की नीति के तहत तिब्बत के लोगों की इच्छाओं के विरूद्ध केवल हिंसक दमन की नीति को ही लागू करते आ रहे हैं। और यही कारण था कि एक श्रृंखला तहत 1959 के साथ-साथ 1987, 1988 और 1989 के वर्षों में तिब्बत में बडे पैमाने पर शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों हुई थी। और पुनः 2008 में तिब्बत में बड़े पैमाने पर वर्ष 2008 तिब्बती पंचांग अनुसार पृथिवी-मूषक वर्ष का शान्तिपूर्ण विद्रोह प्रदर्शन। वर्ष 2009 से जैसे हमेशा से चीन सरकार के ग़लत नीतियों के प्रति निरन्तर आत्मदाह द्वारा तिब्बतियों ने शान्तिपूर्ण विद्रोह किया है, यह जब तक तिब्बत मुक्ति नहीं हो जाता, तब तक रुक नहीं सकता, ऐसी स्थिति बनी हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी वर्ष 2019 के अन्त में मध्य चीनी शहर वुहान से फैली थी, और दुनिया भर के देशों में भी फैलने का बाद 25 फरवरी, 2023 तक कुल क़रिब सात सौ अड़तालीस मिलियन लोग बीमार हुये थे, क़रिब सात लाख लोगों की मृत्यु हुई है। चीन सरकार ने पिछले वर्ष तथाकथित शून्य-महामारी नीति के तहत कड़ी प्रतिबन्धित लगाया गया। किन्तु नवम्बर के अंत से, चीन के जनवादी गणराज्य के विभिन्न हिस्सों से इस नीति के खिलाफ़ तीव्र विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। इस विरोध प्रदर्शन के कारण शून्य-कोविद नीति की हार हुई और चीन की सरकार के पास लोगों की आवाजाही रोक को हटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हालाँकि, इससे महामारी के संक्रमण के प्रसार में भारी वृद्धि हुई। यद्यपि उस समय तिब्बत में निश्चित संख्या का पता लगाना मुश्किल था, लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट की गई तस्वीरों से पता चलता है कि वहाँ चिकित्सा सुविधाओं की भारी कमी के चलते जिनका गम्भीर बीमरी से ग्रस्त तथा मौतें थीं। उनको सोशल नेटवर्क पर दिखाना तिब्बत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था। उन सभी पीड़ितों के लिये, मैं इस अवसर पर उन सभी के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुये सभी मृतकों का प्रार्थना व परिणामना करता हूँ, उन शोक संतप्त परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करता हूँ।

गत वर्ष, संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन, डी.सी. में तिब्बत के मुद्दे पर 8वें विश्व सांसदों के सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसके बाद दक्षिण अमेरिका की संसद के चैंबर ऑफ़ डेफ्युटी में और तिब्बत की सीनेट में नये तिब्बत समर्थन समूहों की स्थापना की गई है। स्पेनिश संसद। तिब्बती संघर्ष में ये प्रमुख उपलब्धियाँ रही हैं और हम उन सभी की सराहना करते हैं जिन्होंने इन प्रयासों की सफलता की ज़िम्मेदारी ली। यह बहुत महत्व की बात है कि इस स्मारक समारोह में भाग लेने के लिये यूरोपीय संसद के सदस्यों के साथ-साथ मैक्सिको और लिथुआनिया की संसदों के प्रतिनिधि विशेष रूप से यहाँ पहुँचे हैं। तिब्बत के न्यायसंगत और अहिंसक मुद्दे के लिये समर्थन बहुत महत्वपूर्ण है और मैं इस अवसर पर उनके लिये विशेष आभार व्यक्त करता हूँ।

निर्वासित में तिब्बती संसद की ओर से सभी सांसदों को अलग अलग तिब्बत के मुद्दे पर समर्थन जुटाने के लिये अभियान चला रही है, और भवि वर्ष में बड़े पैमाने पर अभियान चलाने की योजना है। तिब्बत के मुद्दे का न्यायोचित समाधान प्राप्त करने की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तिब्बतियों को स्वयं इसकी प्राथमिक उत्तरदायित्व लेनी चाहिये। जहाँ तक तिब्बत में तिब्बती लोगों का सम्बन्ध है, उनके साहस, ईमानदारी  और संकल्प एक दम पक्का पर्वत की भाँति है। और यह महत्वपूर्ण है कि जहाँ तक निर्वासन में रहने वाले तिब्बती लोगों का सम्बन्ध है, उनका कर्तव्य है कि वे पावन दलाई लामा जी के प्रति आपनी कृतज्ञता को ध्यान में रखते हुये तिब्बत के न्यायोचित कारण के लिये संघर्ष के सम्बन्ध में अपनी योग्यता को लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता के समुचित उपयोग के माध्यम से साबित करें।

मैं आज की इस अवसर पर निर्वासन तिब्बतियों को सहायता व संसाधन प्रदान करने वाले भारत के सरकार व जनता, विशेषकर तिब्बत मुद्दे को लेकर चिन्ता व समर्थन करने वाले सभी देशों, संघठनों, व्यक्तिगत आदि के प्रति भारत व तिब्बत में रह रहे सभी तिब्बतियों की ओर से अत्यधिक धन्यवाद व आभार प्रकट करता हूँ।

अन्त में, परम पावन दलाई लामा जी दीर्घायु हों, और उनके महान विचार सफल हों, शीघ्र अतिशीघ्र तिब्बत मुक्त हों, इन्हीं शुभकामनाओं सहित 10 मार्च, 2023 को निर्वासित तिब्बत संसद की ओर से।

 

 

टिप्पणीः भोट मूल से अनुवादित, जिसे अन्तिम और आधिकारिक माना जाना चाहिये।

 

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